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Durgkondal: अंचल में अक्षय तृतीया पर्व हर्षोल्लास के साथ कल मनाया जाएगा।*

*अंचल में अक्षय तृतीया पर्व हर्षोल्लास के साथ  कल मनाया जाएगा।*



 दुर्गुकोंदल:शुक्रवार अर्थात 10 मई को अक्षय तृतीया है।हमें इस बात का एहसास नहीं होता है कि पात्र या कलश मनुष्यों का कितना महत्वपूर्ण आविष्कार है। प्राणी जल स्रोतों तक जाकर प्यास बुझाते हैं। आदिमकाल में मनुष्य भी मीलों दूर चलकर यही करते थे। पानी पीते समय किसी हिंसक प्राणी के वार का भय भी बना रहता था। पात्र के आविष्कार के पश्चात मनुष्य पानी अपने साथ ले जाने लगे और फलस्वरूप हिंसक प्राणियों से जोखिम भी कम हो गया। पात्र इस बात का संकेत है कि हम जानवर नहीं रहे। इसलिए वह मानवीय सभ्यता का प्रतीक भी है। वास्तव में पात्र ही मानवता का सर्वश्रेष्ठ प्रमाण है।

           अभी तक प्राप्त स्त्रोतों के आधार पर पात्र में जल और अन्न का संचय किया जा सकता है, वही दो चीजें जो मानव जीवन का पोषण करती हैं। इसलिए, पात्र स्त्री के गर्भ के लिए प्रतीक बन गया। उसे माता के समान दर्जा दिया गया और देवत्व के प्रतीक के रूप में पूजा जाने लगा। पात्र के इस पूजित रूप को पूर्ण कलश कहते हैं और वह प्राचुर्य और शुभ लाभ का प्रतीक बन गया। इस कलश में जल, अंकुर, धान्य और अनाज लबालब भरे जाते हैं और उस पर आम्रपाली (आम के पत्ते) तथा फल रखे जाते हैं। कलश की यह पूजा 3,000 वर्षों से होती आ रही है। ऐसे कलश बौद्ध स्तूप तथा जैन और हिंदू मंदिरों में पाए जाते हैं। जब मुसलमान भारत आए, तब कलश की आकृति कुछ मस्जिदों पर भी बनाई जाने लगी।प्राचीन काल में यह मान्यता थी कि स्वर्ग में धान्य और सोने से लबालब अक्षय पात्र तथा अमरत्व प्रदान करने वाला अमृत से भरा पात्र भी हुआ करता था। मानव जाति के पास ये दो पात्र नहीं होते थे। लेकिन मानव जाति में महिलाएं होती हैं, जो अपने शरीर के भीतर नए जीव का निर्माण करती हैं और निश्चित करती हैं कि अगली पीढ़ी का प्रजनन हो सके। इस प्रकार, महिलाएं अक्षय पात्र और अमृत का मिश्रण हैं। उनके शरीर के माध्यम से परिवार प्राचुर्य और अमरत्व की ओर बढ़ सकता है। महिला के बिना किसी परिवार का जीवित रहना असंभव है और उसका अंत होना निश्चित है।जैन धर्म में यह मान्यता है कि इस कालचक्र के पहले तीर्थंकर ऋषभनाथ ने अक्षय तृतीया के दिन अपना उपवास तोड़ा था। हिंदू धर्म में यह मान्यता है कि 

हिंदू धर्म में कलश या पात्र को देवत्व के प्रतीक के रूप में पूजा जाता है।जब पांडव वनवास में थे, तब श्रीकृष्ण ने द्रौपदी को अक्षय पात्र दिया था, ताकि वे दुर्वासा और अन्य ऋषियों को भोजन खिला सके।क्या यह अचरज की बात नहीं कि आधुनिक भारत पुत्र प्राप्ति से आसक्त है? प्राचीन काल में इसके बिल्कुल विपरीत था। किसी कबीले का अस्तित्व उसमें महिलाओं की संख्या पर निर्भर था, न कि पुरुषों की संख्या पर। इसलिए आदिम काल में महिलाओं को अपना पति चुनने की स्वतंत्रता थी। सबसे श्रेष्ठ विवाह उसे माना जाता था, जब कोई पिता अपनी पुत्री को किसी दूसरे परिवार को स्वेच्छा से देता था। यह अक्षय पात्र और अमृत की भेंट देने के समान था।जबकि वन को अविवाहित महिला और खेत को विवाहित पत्नी के साथ जोड़ा गया। वन को तालाब में बहते जल और खेत को पात्र में एकत्रित जल के साथ जोड़ा गया। खेत वह गर्भ है, जो गांव को पोषित करता है। उसके कारण गांव हर वर्ष समृद्ध बनता है। इसलिए उसे मानव जाति के अक्षय पात्र और अमृत के रूप में पूजा जाता है।शरद ऋतु के आरंभ के पश्चात फसलें काटी जाती हैं। तब लगातार नौ रात पात्र, महिला और खेत साथ आते हैं। जल और अंकुर से भरा पात्र खेत के बीच में रखा जाता है और महिलाएं उसके चारों ओर गोलाकार में नीचे झुककर ताली बजाते हुए नृत्य करती हैं। इससे वे धरती और ब्रह्माण्ड के प्रति अपना आभार व्यक्त करती हैं। उनके आनंद से ब्रह्माण्ड ऊर्जित हो जाता है। धरती रूपी गर्भ के इस नृत्य को गरबो कहते हैं। लगातार नौ रातों के लिए हमें याद दिलाया जाता है कि पात्र जैसे पत्नी और खेत भी नैसर्गिक रचनाएं न होते हुए मनुष्यों द्वारा निर्मित सांस्कृतिक रचनाएं हैं। यदि हम तीनों का आदर नहीं करेंगे तो वे ढह जाएंगे और मानव सभ्यता का अंत हो जाएगा।

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