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## मौत के मुहाने पर शिक्षा: ढोलपट्टी के स्कूल में 'खतरा' ही पाठ्यक्रम!
संवाददाता - मंदीप सिंह चौरे
स्थान - खैरागढ़
**ढोलपट्टी, छत्तीसगढ़:** छत्तीसगढ़ के आदिवासी बाहुल्य क्षेत्र छुईखदान ब्लॉक के वनचाल ग्राम ढोलपट्टी में स्थित **शासकीय नवीन प्राथमिक शाला ढोलपिट्टा** बच्चों के लिए स्कूल नहीं, बल्कि **मौत का पिंजरा** बन चुका है। यहां के मासूम नौनिहाल जर्जर इमारत के नीचे जान हथेली पर रखकर अक्षर ज्ञान ले रहे हैं। जहां एक ओर सरकारें आदिवासी विकास और शिक्षा की बड़ी-बड़ी योजनाएं चलाने का ढिंढोरा पीटती हैं, वहीं ढोलपिट्टा के ये बच्चे सरकारी दावों की पोल खोल रहे हैं।
स्कूल की इमारत इतनी बदहाल है कि छत कभी भी भरभराकर गिर सकती है । बच्चों का स्कूल जाना रोज एक ऐसा जुआ खेलने जैसा है, जिसमें उनकी जान दांव पर लगी होती है। शिक्षा के अधिकार के तहत इन बच्चों को सुरक्षित और सुविधापूर्ण वातावरण में पढ़ाई मिलनी चाहिए, लेकिन यहां उन्हें रोज **"आज बचेंगे या नहीं?"** के सवाल का सामना करना पड़ता है।
सरकार की अनेकों योजनाएं कागजों पर तो आदिवासी क्षेत्रों में विकास की गंगा बहा रही हैं, लेकिन धरातल पर ढोलपिट्टा जैसे गांव आज भी बुनियादी सुविधाओं के लिए तरस रहे हैं। ऐसा लगता है कि इन योजनाओं का मोटा बजट शायद फाइलों के ढेर तले ही दब जाता है, और जमीनी हकीकत तक पहुंचते-पहुंचते 'विकास' का नामोनिशान मिट जाता है। क्या यह सरकार की कोई **अनोखी 'साहसिक शिक्षा' योजना** है, जिसके तहत बच्चों को बचपन से ही खतरों के बीच जीने की ट्रेनिंग दी जा रही है?
एक तरफ देश **डिजिटल इंडिया और स्मार्ट क्लासरूम** की बातें करता है, वहीं ढोलपिट्टा के बच्चे टूटी छत और गिरी हुई दीवारों के बीच अपने भविष्य को संवारने की जद्दोजहद कर रहे हैं। यह स्थिति केवल ढोलपिट्टा की नहीं, बल्कि देश के कई आदिवासी और ग्रामीण क्षेत्रों की जमीनी हकीकत को दर्शाती है, जहां सरकारी अनदेखी के कारण मासूमों का भविष्य अंधकारमय होता जा रहा है।
इस 'विकास मॉडल' पर न तो हंसा जा सकता है और न ही सिर्फ रोया जा सकता है। यह एक कड़वा सच है जो दिखाता है कि कैसे सरकारी घोषणाएं और जमीनी हकीकत के बीच एक लंबी खाई है। ढोलपिट्टा के इन बच्चों की आवाज सुनकर उम्मीद है कि 'विकास बाबू' तक यह बात पहुंचे और वे कागजों से निकलकर इन मासूमों की छत को सुरक्षित कर सकें।
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